20/07/2016

" स्रोतस्विनी बन जाइए "

स्रोतस्विनी बन जाइये ,
हमको बहा ले जाइये ।।

मानस - पटल के भाव में,
हृदयस्थ आविर्भाव में,
मेरे रोम - रोम में आइये ।।

इस प्लवन रूपी भार को,
स्वच्छन्द इस संसार को,
अब आप आके बचाइये ।।

नव रसों से सब युक्त हों ,
परिवार सब संयुक्त हों ,
सौहार्द - भाव बढ़ाइये ।।

पंक्षियों को उन्मुक्त कर ,
आवास भी उपयुक्त कर ,
उनके भी शरण में जाइये ।।

दारुण - हृदय के शोक को ,
निष्पाप बाँझिन कोख को,
फल - फूल से भर जाइये ।।

भागीरथी , ओ नर्मदा ,
पुण्यप्रदा , माँ शारदा ,
साहसिक सबको बनाइये ।।

हे शिरोभूषण धारिणी ,
कल्याणिनी ,हे कमलिनी ,
बस ज्ञान - दीप जलाइये ।।

स्रोतस्विनी बन जाइये
हमको बहा ले जाइये ।।

" जी चाहता है "

जी चाहता है के बालों से तेरे मैं खेलूँ सुबह - शाम उसमें बिता दूँ,
जी चाहता है के गालों कि तेरी चढ़ी लालिमा को मैं दुल्हन बना लूँ ।
जी चाहता है के होंठों के रस को मैं अमृत बना के अधर पे सजा लूँ ,
जी चाहता है के बाँहों में तेरे नया और नया आशियाना बना लूँ ।।

जी चाहता है के हाँथों में तेरे स्वकर को मैं देकर के खुद को बचा लूँ ,
जी चाहता है के आँखों में तेरे मैं डूबूँ, सुबह - शाम उसमें नहा लूँ ।
जी चाहता है के आँसू को तेरे मैं मदिरा बना के गले में दबा लूँ  ,
जी चाहता है के आँचल में तेरे मैं सोऊँ, जहाँ को उसी में सुला लूँ ।।

जी चाहता है के आँधी बनूँ मैं, हो इतनी ही ताकत कि तुझको उड़ा लूँ,
जी चाहता है के बारिश बनूँ मैं हो इतना ही जल कि मैं तुझपे बरस लूँ ।
जी चाहता है के ओढूँ, बिछाऊँ तुझे अपना बिस्तर और चद्दर बना लूँ,
जी चाहता है के प्रकृति मैं बनकर सदा, सर्वदा तुझको अपने में ढ़क लूँ ।।

" देखता हूँ "

देखता हूँ, मनीषियों को "वसुधैव कुटुम्बकम्" का नारा लगाते
खुशी मिलती है,
देखता हूँ उन्हीं आचार्यों को किसी के अवसान पश्चात सभागारों में दुःख व्यक्त करते वक्त विषाद से युक्त चेहरा और आँखों में आँसू ,सुकून मिलता है लगता है कि सम्वेदना अभी है कहीं न कहीं,
विद्वत्गणों का अपनत्व दिखता है, पर देखता हूँ कुछ प्रतिभा सम्पन्न आचार्यों को शोक व्यक्त करते समय भी क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कर अपनी विद्वता  का परिचय देते हुए,
सोंचता हूँ, इनकी भाषा ही ऐसी होगी, पर सुनता हूँ, उन्हें सभागारों के बाहर परस्पर ये कहते कि "कैसे बोला मैं " दुःख होता है,
लगने लगता है ,यह सब मात्र दिखावा है, मिथ्यास्तुति है,
महसूस ही नही होने देते कि यह सब औपचारिक है ।
पर इतना ही नही देखा मैंने ,करुणा के सागर हुए व्यक्ति, दोस्त मित्र
की आँखों से बड़ी - बड़ी बूँदें छलकते हुए भी मैंने देखा है ।।
मैंने देखा है "वसुधैव कुटुम्बकम् "का नारा लगाते हुए भी मैंने देखा है ।।

"मैं, मेरी हार और तुम "

वन, उपवन, गिरि, कानन, कुञ्ज,पराग, सुराग, तड़ाग में हो।
तुम निर्मल, जल,थल, फल और मेरे सकल भाग में हो ।।

सरल,समीर, सरस, सरसुन्दर इन्दु सदृश तुम बिन्दु भी हो ।
तुम अमिट, अजेय, अनन्त, अखण्ड मेरे जीवन के आनन्द में हो ।।

ग्रीष्म, शरद, वर्षा, हेमन्त, शिषिर और वसन्त में हो ।
तुम शरद पूर्णिमा के जैसी मेरे सुख दुःख के सम्बन्ध में हो ।।

विह्वल, विमल, विकल, विश्वासी मेरे पापों के अविनाशी हो ।
तुम गंगा, यमुना, सरस्वती मेरे दीपक की तुम बाती हो ।।

है प्यार अद्भुत और अलौकिक पर रखती नही जरा सी हो ।
तुम हरिद्वार, केदारनाथ, अयोध्या, और मेरी काशी हो ।।

तुम अनुपम सुन्दर वेश बनाकर करती मुझको दीवाना ।
मैं आपकी यादों में खोया और जगत से हुआ बेगाना  ।।

आवारा हूँ, बेगाना हूँ, हमेशा ही मैं हारा हूँ ।
कहते न बनती ये बातें किसका मैं हुआ सहारा हूँ  ।।

तुम नये हो इस जगत में जीतकर की हो मुझे खुश ।
हूँ अकेला इस जगत में और तुम्हारी यादें हैं बस ।।

"अपनी जिन्दगी की कली खिले, न खिले पर
  आपकी जिन्दगी पुष्पमय कर दें ।।"

रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है!

देसभक्त कै चोला पहिने विसधर नाग पले है रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है ।। मोदी - मोदी करें जनमभर कुछू नहीं कै पाइन बाति - बाति...