22/07/2016

" काशी ''

 काशी की महिमा क्या गाऊँ घर - घर यहाँ शिवाला है ।
 जितने उनके भक्त यहाँ हैं सबके संग मतवाला है ।।

नील करे है नमन आपको नीलकंठ स्वीकारो अब,
चरणपादुका में सर रखा हूँ नटराज पधारो अब,
जीवन को जो धन्य बना दे ऐसा भोला - भाला है ।।

 न लेते हैं दही, मलाई न लेते सोना चाँदी,
 न श्रृंगार करें वो अपना न वो उसके शौकी,
 मात्र लेश भर भस्म लगा दो बस प्रसाद भंग प्याला है ।।

 एक तरफ माँ अन्नपूर्णा दुखियों के दुःख दूर करें,
 अहंकार जिसमें भर जाए महादेव फिर चूर करें,
 ऐसा मञ्जुल - दृश्य सुनहरा मेघ जहाँ पर काला है ।।

 कालहरण हैं भैरव बाबा सदा यहाँ विश्राम करें,
 संकट मोचन हनूमान जी राम - भजन मे शाम करें,
 काशी की धरती पे प्यारा संगम बड़ा निराला है ।।

 पापहारिणी गंगा - माँ सब पाप हरण कर लेती हैं,
 शुभ्र - वर्ण की सरस्वती संताप हरण कर लेती हैं,
 शमी -  पत्र हैं अर्पित करते हाँथ मंदार की माला है ।।

 पाँच - पाँच विश्वविद्यालय हैं, राजधानी है शिक्षा की,
 साधु - संत का गढ़ है काशी, उचित व्यवस्था दीक्षा की,
 कई देश के लोग यहाँ, पर भेद न गोरा - काला है ।।

  इसी बनारस सारनाथ से राष्ट्रचिह्न हैं ग्रहण किये,
  इसी बनारस कालनगर में जाने कितने शरण लिये,
  पंचक्रोशी की यात्रा करके  कितनों ने दुःख टाला है ।।

 काशी मोक्षदायिनी नगरी लोग यहाँ मरने आते,
 मणिकर्णिका, हरिश्चन्द्र पर इच्छावश जलने आते,
 मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं वो साथ में डमरू वाला है ।।

 सुबह भोर में उठकर सारे संत - महात्मा ध्यान करें,
 महादेव से सुबह यहाँ पे महादेव से शाम करें,
 महादेव पे वारि जाऊँ ऐसा क्या रंग डाला है ।।

 काशी की महिमा क्या गाऊँ घर - घर यहाँ शिवाला है ।
 जितने उनके भक्त यहाँ हैं सबके संग मतवाला है ।।

1 " छाया है गहरा अन्धकार "

ये बच्चे अभी तुम्हारी सोच से परे हैं, इन्हें जीने दो !












छाया है गहरा अन्धकार,
ऐसे में कुछ कर लो विचार ।।

संसार - समर सा लगता है
दुर्बल - जनमानस दिखता है
भाई , भाई को काट रहा,
बेटा  माँ - बाप को डाँट रहा
अब प्रेम का मौलिक - रूप नही
खिलने वाली वह धूप नही
अंगार पे चलते लोग यहाँ
पत्थर से लड़ते लोग यहाँ
हम उनसे क्या टकरायेंगे
क्या उनको मार भगायेंगे
जब घर वाले ही खन्जर हैं
आवारे हैं, सब बन्जर हैं
वो आ समक्ष ललकार रहा
प्रतिक्षण करता वो वार रहा
हम पीछे भगते जाते हैं
बस पीठ पे गोली खाते हैं
ऐसे समयों में दूर रहो
यूँ कहो न ,मुझसे करो प्यार ।।
                         
 ईराक हो या अफगान यहाँ,
सीरिया हो या जापान यहाँ
यूरोप में गोले बरसे हैं
खाने - पीने को तरसे हैं
अब खून से सड़कें लाल हुई
लोगों के जान की काल हुई
माँ पुत्र का चिथड़ा तन लेकर
परिजन का वो क्रन्दन लेकर
जाने कैसे सोई होगी
जाने कैसे रोई होगी
आँखों से आँसू सूख गये
जो पास कभी थे दूर गये
अब कैसे वह जी पायेगी
निश्चित पागल हो जाएगी
दुनिया को कुछ भी लगे मगर
मुझको ये बात रुलाती है
ऐसी स्थिति को तुम भी समझो ।
पश्चात करो बातें हजार ।।

नीरवता मुझको दिखती है
विह्वलता तम पर लिखती है
मार्तण्ड अदृष्ट सा लगता है
अब वह प्रचण्ड सा दिखता है
घनघोर निराशा सी छाई
यह देख मृत्यु - आँधी आई
सब नष्ट - भ्रष्ट हो जायेगा
यदि उसको मीत बनायेगा
यह देख सामने काल खड़ा
है लिए रूप विकराल बड़ा
मुख का आकार नही इसके
तन का विस्तार नही इसके
पर हैं विचार निकृष्ट बहुत
वह मारेगा , है धृष्ट बहुत
किस तरह उसे समझाऊँ मैं
किस मार्ग से उस तक जाऊँ मैं
इस निर्मम - विकट परिस्थिति में ।
प्यारी ! बातें न करो चार ।।

 वह धीरे - धीरे बढ़ता है
निज - लक्ष्य को सुदृढ़ करता है
ऐसी प्रचण्ड सी खाई है
अब पास नही परछाई है
पर डरो नही सत्कारो तुम
अपने विचार से मारो तुम
वह मूर्ख नही यह ज्ञान करो
बातें करने में ध्यान धरो
वरना, वह खूब रुलायेगा
तन काट - काट तड़पायेगा
कलुषित विचार वो रखता है
ईश्वर से भी न डरता है
आगन्तुक है बिभीषिका कल
उसको तू सोंच समझ कर चल
प्रज्ञा - प्रयोग में लाओ अब
उसको भी गले लगाओ अब
हे प्रियतम ! ऐसे जीवन में ।
तुम समझो कुछ मेरे विचार ।।

पर सोंच समझ के कार्य करो,
पहले देखो फिर वार करो
वरना प्यारे! फँस जाओगे
जा दलदल में धँस जाओगे
अब उठो शेर! रणभेरी है
तेरे आने की देरी है
और हाँथ में इक शमशीर रखो
तुम युद्ध करो और वीर बनो
मारो उसको, काटो उसको
सौ टुकड़े कर बाँटो उसको
मैं फरसा लेके आता हूँ
उसका सर पैर में लाता हूँ
मैं आवारा कहलाऊँगा
मैं हत्यारा कहलाऊँगा
इसका मुझको दु:ख दर्द नही
भारतीय हूँ मैं, नामर्द नही
मैं बोल चुका जो कहना था ।
प्रियवर क्या हैं तेरे विचार? ।।

छाया है गहरा अन्धकार ।
ऐसे में कुछ कर लो विचार ।।


" गीत गाता हूँ मैं "

गीत गाता हूँ मैं,
                   गुनगुनाता हूँ मैं ।
एक तुमको हृदय में,
                    बसाता हूँ मैं ।।
तन ये अर्पित किया,
                मन समर्पित किया ।
आत्मा की धरातल पे,
                         पाता हूँ मैं ।।
जीत लो ये जमीं,
                     जीत लो आसमाँ ।
पास आओ कि तुमको,
                          रिझाता हूँ मैं ।।
तुम हृदयस्पर्शिनी,
                         मेरी प्रियदर्शिनी ।
बातें तुमको ही सारी,
                           बताता हूँ मैं ।।
मेरी जीवनलहर,
                        मेरी आह्लादिनी ।
अपनी कविताएँ तुमपे,
                          बनाता हूँ मैं ।।
मुझको कुछ भी कहो,
                           अब सजा चाहे दो ।
हृदय की गति को अपने,
                                   सुनाता हूँ मैं ।।

" वो हमें हम उन्हें भूल जाने लगे "

वो हमें हम उन्हें भूल जाने लगे ।
पास आए मगर दूर जाने लगे ।।

गुल में जो साज थे सारे झड़ने लगे,
शूल आके हृदय में जो गड़ने लगे ।
वक्त की आँधियों ने बदल सब दिया,
आज वो ही हमें आजमाने लगे ।।

एक अर्शे से चाहत थी जिस बात की,
बात हो कुछ हमारे मुलाकात की ।
तोड़ डाले सभी भाव - बन्धन के वो,
जिनको पाने में शायद जमाने लगे ।।

अभ्र से सब्र जब टूट जाते हैं तो,
वादियों से घटा छूट जाती हैं तो ।
इश्क जब प्यार से रूठ जाता है तो,
हम उन्हें प्यार से तब मनाने लगे ।।

लफ्ज मुख से निकलते नही वक्त उस,
वो मुझे देखकर रोज होते हैं खुश ।
पर परेशाँ तो होते हैं वो भी कभी,
मुझसे नजदीकियाँ वो बढ़ाने लगे ।।

मैं भी था प्यार पे अपने बिलकुल अड़ा,
भाव के बन्धनों को रहा था बढ़ा ।
वक्त की साजिशों से पलट सब लिया,
अब मुझे प्यार से वो बुलाने लगे ।।

फिर चली सर्द - वायु  उसी रात को,
उसने खोली हमारी गई बात को ।
मुझको याद कराया मेरा पहला दिन,
पुनः आपस में प्यार जताने लगे ।।

जो भी थी दूरियाँ सारी मिट अब गई,
जो गलत - फहमियाँ थी सिमट सी गई ।
एक - दूजे लिपट कर गले हम मिले,
वो हमें, हम उन्हें पास पाने लगे ।।

वो मेरी भावनाओं को सुनती गई,
साथ ही ख्वाबों को अपने बुनती गई ।
आसमाँ के तले नील लेटे हुए,
एक - दूजे के सपने सजाने लगे ।।

वो हमें हम उन्हें भूल जाने लगे ।
पास आए मगर दूर जाने लगे ।।

" वसन्त और तुम "

यह कुसुम पवन सब बार - बार,
उन चरणों को छू जायें हैं ।
नव रस का जो मिथ्याभिमान,
नतमस्तक सम (सामने ) हो जाए है ।।

जब चलती हैं वो नदियों में,
नदियाँ भी हिलोरे खाएँ हैं ।
जब उतरें वो सागर में तो,
वह चरण चूमने आये है ।।

वन, उपवन की क्या बात कहें,
जो स्वयं ही आश लगाए हैं ।
वह कोमल - कोमल तृण जो हैं,
न छूने से मुरझाए हैं ।।

मुखड़ा उनका इतना सुन्दर,
कि चाँद भी शीश झुकाए है ।
जल, थल, नभ सब गर्व करते,
मुखड़े का दर्शन पाये हैं ।।

हैं कोमल, मधुर अधर उनके,
मधुशाला सी ढरकाए हैं ।
जब निकले हैं बाहर को वो,
स्वागत में बारिश आए है ।।

मीठी इतनी वाणी उनकी,
कि कोयल भी ललचाए है ।
उस वाणी के श्रवणातुर जन,
अरसिक रसिक हो जाए हैं ।।

हैं कपोल कोमल उनके,
मानो की कमल समाये हैं ।
हैं आज हमारे सामने वो,
गालों पे लालिमा लाए हैं ।।

है मधुशाला उन नयनों में,
जिनको देखे ललचाए हैं ।
हैं मृगनयनी उनकी आँखें,
उनमें ही प्राण समाएह हैं ।।

बालों की क्या बातें करना,
जो रातरानि महकाए हैं ।
छूने में हाँथ गर्व करता ,
सूँघने पे वो इठलाये हैं ।।

है सुमेरु - स्तन उनका,
हम देख - देख हर्षाए हैं ।
हैं शर्मीली इतनी वो कि,
कुच पे वे हाँथ लगाये हैं ।।

है शर्म, हया इतनी उनमें,
कि बातों से डर जाए हैं ।
है छुई - मुई उनकी आदत,
छूने पर वो शर्माए हैं ।।

रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है!

देसभक्त कै चोला पहिने विसधर नाग पले है रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है ।। मोदी - मोदी करें जनमभर कुछू नहीं कै पाइन बाति - बाति...