30/11/2016

अच्छे दिन

सुनिए ,
अच्छे दिन आ गये हैं
पर किसी से कुछ कहियेगा नही

सैनिक घटते जा रहे हैं
सरहदों से
जैसे खेतों से घटती जा
रही है उपज अनाज की ।।

सड़कें उखड़ती जा रही हैं
हो चुका है यातायात अवरुद्ध
बनारस की चौड़ी और
फोर लेन्थ की सड़कों पर भी ।।

आठ - दश साल के बच्चे
भूँज रहे हैं भूँजा लगातार
भूँजे के साथ अपना पूरा बचपन
आग की धधकती आँच में ।।

कुछ दौड़ रहे हैं
घाट की ऊँची - नीची सीढ़ियों पर बेहिचक
चाय की केतली हाँथों में लेकर
वहीं
कुछ चार - पाँच साल की लड़कियाँ
दिखा रही हैं करतब
पूरी धरती को अपने में समेटती हुई ,
बजा रही हैं ढोल
गाए जा रही हैं भोजपुरी के
अश्लील गाने घाटों पर
पेट के लिए ,
दो वक्त की रोटी के लिए ।।

आत्महत्या करते जा रहे हैं
किसान ,
दिन पर दिन बढ़ती जा रही है इनकी संख्या
मगर ये आत्महत्या नही
हत्याएँ हैं,
और हत्यारे घूम रहे हैं सरेबाजार
किसानों के हित की तोंदियल
बातें बतियाते हुए
निर्द्वन्द और निर्भीक ।।

भिखारी दर - दर खड़े हैं
हाँथ में कटोरा लेकर
कम से कम
एक रुपये की माँग के साथ ।।

गंगा की उफनाती लहरें
आती हैं पूरे वेग से
पैर से टकरा कर हो जाती हैं
शान्त
प्रकट करती हैं विरोध
मुझे अपना मान ,
गंगा अभियान वाले मुँहबोलों के खिलाफ ।।

नही बदला है कुछ भी ,
वही है दिन , वही रात
गद्दी वही है
वही है राज्य
जनता भी वही भोली - भाली
बस बदले हैं तरीके
बदले हैं राजघराने के लोग
और बदल गये हैं राजा
जिनके अच्छे दिन चल रहे हैं ।।


The poem has been selected in
magazine of kaksaad ..
Thank you sir,
Thank you my friend's..


सृष्टि का निर्माण कर दूँगा प्रिये ! वादा मेरा है

सृष्टि का निर्माण कर दूँगा प्रिये !वादा मेरा है ।
तुम नही रोओ कि रोएगा जहाँ वादा मेरा है ।।

अब हवाएँ मुक्त होंगी सृष्टि के उल्लास में 
साथ तुम मेरे रहोगी माह उस मधुमास में 
चाहता हूँ साथ मैं अपने हृदय की संगिनी का 
जिस तरह से साथ है अम्बुधि का अमरतरंगिनी का 
आज कैसे छोड़ दूँ ऐसे गलीचों में तुम्हें 
फिर मिलेंगे दिव्य इन्दीवर बगीचों में तुम्हें ।

व्योम से निर्झर गिरेंगी बूँद ये वादा मेरा है ।।

आज होंठों को सजाकर इस हृदय से दूर हो 
या कि कोई है समस्या आज क्यों ? मजबूर हो 
तुम चलो तुमको दिखाऊँ चन्द्रमा उस छोर में
शीत रश्मि गिर रही है उस दिशा, उस ओर में
यूँ फँसे हैं आज कम्पित हो रहा है मन मेरा 
यूँ हुई बारिश शहर ,घर भीगता आँगन मेरा ।

साथ दूँगा मैं सदा मजधार में वादा मेरा है ।।

है तमन्ना कुछ नही अब ये जगत मैं छोड़ दूँ 
मैं रहूँ इक तुम रहो बस जिन्दगी को मोड़ दूँ
आँख का आँसू बनूँ मैं इस कदर उलझा रहूँ 
तू नजर के सामने रह मैं सदा सुलझा रहूँ
जिन्दगी वीराँ नही हो एक - दूजे के लिये
दिन,महीने,साल हों आशिक मरीजे के लिये ।

डूब जाऊँगा तुम्हारे प्यार में वादा मेरा है ।।

मैं सदा सोऊँ तुम्हारी जुल्फ की छैयाँ तले
आज आ जाओ यहाँ सब छोड़ लग जाओ गले
जिन्दगी ये है समर्पित तुम कहो क्या कह रही
यह मिलन की वार्ता सुन मन्द वायु बह रही
फिर कहो मेरी प्रिये किस बात की अब देर है
सत्य कहता हूँ प्रिये ! ये न गज़ल, न शेर है ।

दो हृदय का मेल हो जाएगा ये वादा मेरा है ।।

काव्य के झंकृत स्वरों को मान दे दूँ  मैं अभी
दिव्य उर की कल्पना सम्मान दे दूँ मैं अभी
हाँथ जो इक बार पकड़े फिर नही छोड़ेगें हम 
साथ कदमों से तुम्हारे मिल चलेंगें ये कदम 
मैं नही इन वर्जनाओं को करूँ स्वीकार अब
हाँथ यूँ पकड़ो मेरा मैं त्याग दूँ संसार सब ।

जिन्दगी भर साथ न छोडूँगा ये वादा मेरा है ।।


27/11/2016

आपदा और किसान

आपदाएँ ,
मार देती हैं किसानों को
ख़त्म कर देती हैं उनकी जिन्दगी
बरबाद कर देती हैं सारी फसल ।
किसानों के दारुण हृदय की दर्द भरी
आवाज़
हृदय को झकझोर देने वाली ,
आह....
इस ध्वनि से अथवा
किसी भयानक - बवंडर के आ जाने के
बाद का वह भयावह दृश्य,
जो एक किसान को उसके माथे पे हाँथ रखने पर
मजबूर कर देता है,
और नैसर्गिकतया, न चाहते हुए भी
मुख से हाय यह शब्द निकल जाता है ।

टूट जाता है,
सारे सपनों को टूटते हुए देख
बच्चे की फीस ,अम्मा और बाबू जी के लिए दवाइयाँ
अगले माह बिटिया की सगाई
उसके लिए जेवर थोड़े बहुत
दहेज में गाड़ी,
उसके साथ पचास हजार नगद जैसे कई
जरूरी सपने
पर वह हार नही मानता
फिर से किसी के ढ़ाढस बंधाने पर खुद को मजबूत
करते हुए,
अपनी दूसरी फसल के बारे में सोंचने लगता है
किसान,
जैसे प्रथम पुत्र के मरणोपरांत दूसरे पुत्र के
बारे में सोंचते हैं लोग
और प्रवृत्त हो जाता है दूसरी फसल की
जुताई ,बुआई ,रोपाई में
पुनः लहलहाती फसलें खेतों में लहराने लगती हैं
किसान के चेहरे की वह प्रसन्नता जो
शदियों से खोई थी ,
आज देखने को मिली उसके चेहरे पर  ।
अब वह नही चाहता इनसे दूर जाना
तनिक देर भी,
लगा रहता है निराई , गोड़ाई में ,
स्पर्श करता है जब उन फसलों की
बालियों को ,
लगता है पुचकार रहा हो अपने 2 साल के
पोते को जिससे निकलने लगी है
तुतलाहट भरी आवाज़ ,
कुछ ही दिनों के भीतर भर देता है
सारा कर्ज ,
लोग कहते हैं वो देखो जा रहा है किसान
जो कभी सदमे में था ।।

22/11/2016

खाये जा रहे हैं

खाये जा रहे हैं ,
जैसे खाते हैं लकड़ियों को घुन
वैसे ही खाये जा रहे हैं
किसानों के खेत ,
बिके जा रहे हैं
अनाज सेंत ,
अभी और न जाने क्या क्या
खायेंगे,
खाये जा रहे हैं ,
बाग़ बगीचे फूल और फल
चबाये जा रहे हैं
हरी भरी पत्तियाँ ,
धीरे धीरे बढ़ रही है
गति,
खाने की

जब से बेंच दिये हैं
अपना वजूद ,
भूल गये हैं अपनी अहमियत
एकाएक ,
यह बदलाव
कहीं खा न जाए
गाँव ,घर
पूरा का पूरा
शहर

कहीं बेंचनी न पड़ जाये
या बेंच दें आबरू
बहन और बेटियों की
कहीं नीलाम न कर दें
माँ की इज्जत
खाने ख़ातिर

कहीं साजिस न
रची जा रही हो
हमारे प्रदेश ,देश
और
समूचे राष्ट्र को
खाने की।।

उजड़ा घर

जितना उड़ पाओ उड़ लो तुम
दो पल के जगजीवन में
औंधे मुँह गिर जाओगे
फिर उसी किसानी भोजन में

गहन अँधेरे में आँखें
आखिर कैसे खुल पाएँगी
सपने जैसे टूटेंगे
फिर रोएँगी ,चिल्लाएंगी

बाजारों से भोजन लाओ
घर में न इक दाना है
पानी लाने अम्मा के संग
बहुत दूर तक जाना है

बहन हमारी छोटी सी
क्यों ? रोती है,चिल्लाती है
मुँह में मिट्टी डाल ,उसे
क्यों ?कूँच कूँच के खाती है

पिता गए बाजार वहाँ से
कुछ तो वो लाते होंगे
रो मत बहना !धीरज रख
अब साँझ हुई आते होंगे

जब तक लाते बाजारों से
चक्कर आया गिरी उधर
मेरी प्यारी भोली बहना
गई हाँथ में मेरे मर

पिता देख तड़पा ,चिल्लाया
बोला बेटी खाले तू
उठ उठ बैठ मेरी बिटिया
थोड़ा सा भोजन पाले तू

नहीं किया भोजन भाई भी
सारा दिन वह रहा उदास
सर्दी ,सर्द हवा से वह,सब
छोड़ चला बहना के पास

कैसे दिल आशीष तुम्हें दे
बच्चों के हत्यारे तुम
मेरे बेटे कहाँ गये
जीवन के चाँद सितारे तुम

माता-पिता अधीर हुए
दोनों नें आज लिया सल्फ़ास
आज गरीबी नें कर दी है
चार चार लोगों को लाश

हाँथ जोड़कर प्यारी बातें
घर घर वो बतियाते हैं
'मेक इंडिया' कहने वाले
कब तबके में आते हैं

14/11/2016

चलती लाश

मरे आदमी औरत टूटी
बुझता गया उजास
रोज़ मुझे दिख जाती है
सड़कों पे चलती लाश

काट दिये हैं सारे उपवन
तड़प रहा हूँ मैं ,मेरा मन
बिलकुल सूनसान ,निर्जन वह
खाली पड़ा अकाश

जला नहीं अब तक घर चूल्हा
टूट गया है चल चल कूल्हा
रहे बांटते बिजली, पानी
फिर भी बुझी न प्यास

बच्चे ऐसा सिला दिये हैं
मिट्टी में सब मिला दिये हैं
रहें ख़ुशी से हरदम प्यारे
वो करती उपवास

आज लगा कि स्थिर हूँ मैं
आँख में उनके गहन तिमिर मैं
बच्चों के सुख की ख़ातिर ,
अब ले लूँ मैं सन्यास

लूला लंगड़ा काना है वो
बच्चा नहीं सयाना है वो
उससे दुर्व्यवहार करें
करते उसका उपहास

पेट पीठ पाषाण हुये हैं
कोई लघु परिमाण हुये हैं
हैं  अनाज न खेत में
चक्की रही उदास

तरुणाई भी न आ पाई
दर्द बहुत लोगों से पाई
मेरी मुनिया मर गई
तड़प तड़प कर आज

मस्त रहा है वो अपने में
बिखरे कुछ टूटे सपने में
''नील'' धरा का बैरागी है
रही न कोई आश   

08/11/2016

सफ़र में जिन्दगी नीलाम कर दी

सुबह ख़्वाबों में आई शाम कर दी
भरी महफ़िल में उसने जाम भर दी

मरे अब तक नहीं हम रोज़ मरकर
सफ़र में जिन्दगी नीलाम कर दी

बड़ी शिद्दत से जिसको चाहता था
उसी नें आशिकी बदनाम कर दी

नशा अब तक चढ़ा है यूँ मेरे सर
मुझे यह बेरुख़ी वीरान कर दी

बड़ी हसरत भरी थी इस हृदय में
मुझे इक पल में वो अन्जान कर दी

अहिंसा के पुजारी बन गये हैं
कि जब से वो हृदय शमशान कर दी

कि अब ये दूरियाँ मिट पाएँ कैसे
बना दुश्मन वो पाकिस्तान कर दी

अधूरी जिन्दगी मैं ढूढता हूँ
कहाँ ये जिन्दगी कुर्बान कर दी 

बुरा लगता है

बुरा लगता है,
जब कोई कोशिश करे उतारने की
चेहरे पर लगे हुए मुखौटे को
तब बुरा लगता है।
फिर चाहे हों मित्र ,बन्धु
पिता माता या हो कोई और।

और बहुत बुरा लगता है तब
जब कोई कमेंट्स करे अपनी बहन पे ,
देखकर बजाये सीटियाँ या
खींच लिया हो दुपट्टा ,
फाड़ दिए हों कपड़े सरेराह
मन होता उतार दूँ पूरा का पूरा
ख़न्जर उसके हृदय में ,
तोड़ दूँ बत्तीसों दाँत या
तोड़ कर हाँथ - पैर बैठा दूँ साले को
अधमरा कर दूँ ,
ताकि दुबारा वह किसी से बोलने में भी
काँप उठे।
पर बुरा नहीं लगता तब जब हम स्वयं किसी की
बहन बेटी या बहू पे डाल रहे होते हैं डोरे
या पास कर रहे होते हैं ढ़ेर सारे भद्दे कमेंट्स

बुरा लगता है ,
जब मजाक ही सही कोई प्रयोग करे प्रेमिका
के लिए वो शब्द ,
जो वह स्वयं प्रयोग करता हो
किसी दूसरे की प्रेमिकाओं के लिए
मॉल और भौजी जैसे शब्द ,
जब उन्ही का प्रयोग होने लगे स्वयं पर
तब बुरा लगता है।

और बुरा लगता है तब ,
जब यथार्थ के धरातल पर लाकर पटक दे कोई ,
दिखा दे तुम्हारी नग्नता भरी तस्वीर ,
तुम्हारे एकटक देखते रहने का कोई कर
दे विरोध या
दे दे गालियाँ ,
लगे तुम्हारी धज्जियाँ उड़ाने तुम्हारे ही
किये गए कारनामों पर ,
बात - बात में तुम्हें दिखाने लगे नीचा
और ,
अपना होकर जब कोई अपनेपन का अहसास
न होने दे तब ,
उसे ही नही मुझे भी
बुरा लगता है।।

नक्कटी जनता और हम

 जितनी नक्कटी है ये जनता
 उतने ही नक्कटे हैं हम।
 जो पहुँच जाते हैं ,
हर साल छह महीने के भीतर ही
कइयों मंच पर
जहाँ से देते हैं कइयों मौलिक विचार ।

समझाते हैं देश - दुनिया की बातें
खोलते हैं पोल नेता की
मंत्री की,
और इस बेलगाम कानून की ,
ले आते हैं सामने समाज में छिपी हुई
बुराइयों को,
करते हैं जनता के हित की बातें ।

मगर हमारी जनता ,
हमारे ही विचारों की अर्थियाँ उठाने में
अपना वक़्त ज़ाया नही करती।
वो बस पीट देती है तालियाँ
और अगर
कहीं कविता हो प्रेम पे तब देखो
इन तमाशबीनों की बजती हुई सीटियाँ ।

छेड़ दो दो - चार शेर
सुनते रहो अपने जुमलों पर जनता की वाहवाही।
क्योंकि आज की जनता को विचार नहीं
आनन्द चाहिए।
जिसके लिए हमें खरीदा जाता है चंद पैसों में ।

चंद पैसों के लालच और अपनी
शानो - शौकत के
लिए बिक जाते हैं हम।।

रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है!

देसभक्त कै चोला पहिने विसधर नाग पले है रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है ।। मोदी - मोदी करें जनमभर कुछू नहीं कै पाइन बाति - बाति...