युँ ही लगता नहीं है मन कहीं पर
दिखें जब तक नहीं हमदम कहीं पर
है भीतर शोर, ख़ामोशी है बाहर
हुआ कैसा ये स्पन्दन कहीं पर
दरिन्दे देश में बढ़ने लगे हैं
बचाती बेटियाँ दामन कहीं पर
दिखे दोनों नहीं इक साथ मुझको
कहीं विद्या दिखी तो धन कहीं पर
चढ़ी है मुफलिसी सर पर हमारे
लगे अच्छा नहीं मौसम कहीं पर
कभी दिखते नहीं ख़ालिक बनें हैं
बढ़े हैं खूब अब रावण कहीं पर
सुबह से रो रहा मासूम बच्चा
कहीं सूना पड़ा आँगन कहीं पर
बिरहमन फूटकर रोते मिले हैं
मुझे ऐसा दिख़ा आलम कहीं पर
अजब उलझन मची भीतर हमारे
कहीं पर तन हमारा, मन कहीं पर
जिसे हम रात-दिन सोचा किये हैं
गिरी है "नील" वो शबनम कहीं पर