22/11/2016

खाये जा रहे हैं

खाये जा रहे हैं ,
जैसे खाते हैं लकड़ियों को घुन
वैसे ही खाये जा रहे हैं
किसानों के खेत ,
बिके जा रहे हैं
अनाज सेंत ,
अभी और न जाने क्या क्या
खायेंगे,
खाये जा रहे हैं ,
बाग़ बगीचे फूल और फल
चबाये जा रहे हैं
हरी भरी पत्तियाँ ,
धीरे धीरे बढ़ रही है
गति,
खाने की

जब से बेंच दिये हैं
अपना वजूद ,
भूल गये हैं अपनी अहमियत
एकाएक ,
यह बदलाव
कहीं खा न जाए
गाँव ,घर
पूरा का पूरा
शहर

कहीं बेंचनी न पड़ जाये
या बेंच दें आबरू
बहन और बेटियों की
कहीं नीलाम न कर दें
माँ की इज्जत
खाने ख़ातिर

कहीं साजिस न
रची जा रही हो
हमारे प्रदेश ,देश
और
समूचे राष्ट्र को
खाने की।।

उजड़ा घर

जितना उड़ पाओ उड़ लो तुम
दो पल के जगजीवन में
औंधे मुँह गिर जाओगे
फिर उसी किसानी भोजन में

गहन अँधेरे में आँखें
आखिर कैसे खुल पाएँगी
सपने जैसे टूटेंगे
फिर रोएँगी ,चिल्लाएंगी

बाजारों से भोजन लाओ
घर में न इक दाना है
पानी लाने अम्मा के संग
बहुत दूर तक जाना है

बहन हमारी छोटी सी
क्यों ? रोती है,चिल्लाती है
मुँह में मिट्टी डाल ,उसे
क्यों ?कूँच कूँच के खाती है

पिता गए बाजार वहाँ से
कुछ तो वो लाते होंगे
रो मत बहना !धीरज रख
अब साँझ हुई आते होंगे

जब तक लाते बाजारों से
चक्कर आया गिरी उधर
मेरी प्यारी भोली बहना
गई हाँथ में मेरे मर

पिता देख तड़पा ,चिल्लाया
बोला बेटी खाले तू
उठ उठ बैठ मेरी बिटिया
थोड़ा सा भोजन पाले तू

नहीं किया भोजन भाई भी
सारा दिन वह रहा उदास
सर्दी ,सर्द हवा से वह,सब
छोड़ चला बहना के पास

कैसे दिल आशीष तुम्हें दे
बच्चों के हत्यारे तुम
मेरे बेटे कहाँ गये
जीवन के चाँद सितारे तुम

माता-पिता अधीर हुए
दोनों नें आज लिया सल्फ़ास
आज गरीबी नें कर दी है
चार चार लोगों को लाश

हाँथ जोड़कर प्यारी बातें
घर घर वो बतियाते हैं
'मेक इंडिया' कहने वाले
कब तबके में आते हैं

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