22/11/2016

खाये जा रहे हैं

खाये जा रहे हैं ,
जैसे खाते हैं लकड़ियों को घुन
वैसे ही खाये जा रहे हैं
किसानों के खेत ,
बिके जा रहे हैं
अनाज सेंत ,
अभी और न जाने क्या क्या
खायेंगे,
खाये जा रहे हैं ,
बाग़ बगीचे फूल और फल
चबाये जा रहे हैं
हरी भरी पत्तियाँ ,
धीरे धीरे बढ़ रही है
गति,
खाने की

जब से बेंच दिये हैं
अपना वजूद ,
भूल गये हैं अपनी अहमियत
एकाएक ,
यह बदलाव
कहीं खा न जाए
गाँव ,घर
पूरा का पूरा
शहर

कहीं बेंचनी न पड़ जाये
या बेंच दें आबरू
बहन और बेटियों की
कहीं नीलाम न कर दें
माँ की इज्जत
खाने ख़ातिर

कहीं साजिस न
रची जा रही हो
हमारे प्रदेश ,देश
और
समूचे राष्ट्र को
खाने की।।

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