कविताओं की आपाधापी में
कविता बीमार पड़ी।
पूरी सत्ता लचर गई है
कलम आज बेकार पड़ी।।
बेटे जन्म दिये सुख काटी
अपनी सारी खुशियाँ बाँटी
आज हुई वो बुढ़िया जैसे ,
खटिया पे लाचार पड़ी।।
ठण्डी से वह ठिठुर गई थी
सिमटी थी ,वो बटुर गई थी।
तन पे लत्ता एक नही था ,
उसे सर्द की मार पड़ी।।
सरहद पे हैं चली गोलियाँ
खाली कर दी,भरी झोलियाँ।
देख सकी न हिन्दू,मुस्लिम
दिल पे गोली चार पड़ी।।
सारे कपड़े चीर दिये थे
चोट बहुत गम्भीर दिये थे।
ऐसा हश्र किये हैं उसका,
मृत आधी बेदार पड़ी।।
लाल सायरन बजा रहे हैं
नीली बत्ती जला रहे हैं।
नंगी लाश मिली है मुझको
जो थी गंगा-पार पड़ी।।
कब तक आखिर लड़े लड़ाई
कब तक ऐसी करें पढ़ाई।
मुझको रास नही आती है
औंधे मुँह सरकार पड़ी।।
कविता बीमार पड़ी।
पूरी सत्ता लचर गई है
कलम आज बेकार पड़ी।।
बेटे जन्म दिये सुख काटी
अपनी सारी खुशियाँ बाँटी
आज हुई वो बुढ़िया जैसे ,
खटिया पे लाचार पड़ी।।
ठण्डी से वह ठिठुर गई थी
सिमटी थी ,वो बटुर गई थी।
तन पे लत्ता एक नही था ,
उसे सर्द की मार पड़ी।।
सरहद पे हैं चली गोलियाँ
खाली कर दी,भरी झोलियाँ।
देख सकी न हिन्दू,मुस्लिम
दिल पे गोली चार पड़ी।।
सारे कपड़े चीर दिये थे
चोट बहुत गम्भीर दिये थे।
ऐसा हश्र किये हैं उसका,
मृत आधी बेदार पड़ी।।
लाल सायरन बजा रहे हैं
नीली बत्ती जला रहे हैं।
नंगी लाश मिली है मुझको
जो थी गंगा-पार पड़ी।।
कब तक आखिर लड़े लड़ाई
कब तक ऐसी करें पढ़ाई।
मुझको रास नही आती है
औंधे मुँह सरकार पड़ी।।