आखिर जब तुम ही न होगे कैसा होगा ये जीवन
ना तुम होगी, ना हम होंगे, ना होंगे ये घर - आँगन ।।
क्या होंगे प्रासाद भवन सब तेरे आगे फीके हैं
तुझको, तुझसे ज्यादा चाहें बस इतना ही सीखे हैं
कितने बादल घेरे - घुमड़े तुम पर असर नहीं होता
बरषा जैसी बरसी मुझपर मुझ बिन बसर नहीं होता
ऐसे पल - पल बीत रहे हैं तुम बिन तड़पेगे सावन ।
उन अधरों पर गजल , गीत आखिर कैसे लिख पाऊँगा
दूर रहोगे मुझसे ही गर कैसे साथ निभाऊँगा
तुम ही बोलो मधुर - मिलन उन बातों का फिर क्या होगा
तुम ही बोलो अन्तहीन उन रातों का फिर क्या होगा
सब श्रृंगार उतर जाएँगें टूट चुका होगा दर्पण ।
शब्दों की माला पहनाऊँ भावों से श्रृंगार करूँ
तुमसे पहले महक तुम्हारी आये इतना प्यार करूँ
कोरा - जीवन हो जाएगा औरों में बंट जाएगा
यद्यपि इन अवसादों में भी ये जीवन कट जाएगा
महज़ वेदनाएँ भर होंगी और रहेगा पागलपन ।
जहाँ - जहाँ हम बाग - बगीचों में जा बैठा करते थे
कलरव करते आते पंक्षी विषय अनूठा करते थे
सारे भाव उपस्थित होते आलम्बन , उद्दीपन के
और जवानी के पर लग जाते थे उस पल सावन के
कोयल जब भी कूँक उठाएँगी मन में होगी उलझन ।
आखिर जब तुम ही न होगे कैसा होगा ये जीवन
ना तुम होगी, ना हम होंगे, ना होंगे ये घर - आँगन ।।