21/07/2019

आखिर जब तुम ही न होगे कैसा होगा ये जीवन



आखिर जब तुम ही न होगे कैसा होगा ये जीवन 
ना तुम होगी, ना हम होंगे, ना होंगे ये घर - आँगन ।।

क्या होंगे प्रासाद भवन सब तेरे आगे फीके हैं 
तुझको, तुझसे ज्यादा चाहें बस इतना ही सीखे हैं 
कितने बादल घेरे - घुमड़े तुम पर असर नहीं होता 
बरषा जैसी बरसी मुझपर मुझ बिन बसर नहीं होता 

ऐसे पल - पल बीत रहे हैं तुम बिन तड़पेगे सावन ।

उन अधरों पर गजल , गीत आखिर कैसे लिख पाऊँगा 
दूर रहोगे मुझसे ही गर कैसे साथ निभाऊँगा 
तुम ही बोलो मधुर - मिलन उन बातों का फिर क्या होगा 
तुम ही बोलो अन्तहीन उन रातों का फिर क्या होगा 

सब श्रृंगार उतर जाएँगें टूट चुका होगा दर्पण ।

शब्दों की माला पहनाऊँ भावों से श्रृंगार करूँ 
तुमसे पहले महक तुम्हारी आये इतना प्यार करूँ 
कोरा - जीवन हो जाएगा औरों में बंट जाएगा 
यद्यपि इन अवसादों में भी ये जीवन कट जाएगा

महज़ वेदनाएँ भर होंगी और रहेगा पागलपन ।

जहाँ - जहाँ हम बाग - बगीचों में जा बैठा करते थे 
कलरव करते आते पंक्षी विषय अनूठा करते थे 
सारे भाव उपस्थित होते आलम्बन , उद्दीपन के 
और जवानी के पर लग जाते थे उस पल सावन के 

कोयल जब भी कूँक उठाएँगी मन में होगी उलझन ।

आखिर जब तुम ही न होगे कैसा होगा ये जीवन 
ना तुम होगी, ना हम होंगे, ना होंगे ये घर - आँगन ।।

रात की काली चदरिया ओढ़कर हम चल दिये


रात की काली चदरिया ओढ़कर हम चल दिये 
मेरी दुनिया, मेरे मञ्जर, मेरे अपने हल दिये 

कुछ घड़ी, कुछ पल बिता सकता था मैं भी साथ पर 
जिस वख़त प्यासा रहा मैं उस वख़त न जल दिये 

और अब किससे गिले - शिकवे करूँ मैं उम्रभर 
वो डुबाए बीच में बोलो कहाँ साहिल दिये 

जिनसे आशाएँ बहुत थी, थे बहुत सपने सजे 
जिन्दगी दुश्वार करके वो मुझे दलदल दिये 

आँख मेरी अब खुली है जब तमाशा बन गया 
मेरे घर मुझको नही रखे, मुझे जंगल दिये 

जिनको मैं देखा नहीं जिनपे ये नज़रें न गई 
जिनको अपना मैं न समझा बस वही सम्बल दिये 

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