रात की काली चदरिया ओढ़कर हम चल दिये
मेरी दुनिया, मेरे मञ्जर, मेरे अपने हल दिये
कुछ घड़ी, कुछ पल बिता सकता था मैं भी साथ पर
जिस वख़त प्यासा रहा मैं उस वख़त न जल दिये
और अब किससे गिले - शिकवे करूँ मैं उम्रभर
वो डुबाए बीच में बोलो कहाँ साहिल दिये
जिनसे आशाएँ बहुत थी, थे बहुत सपने सजे
जिन्दगी दुश्वार करके वो मुझे दलदल दिये
आँख मेरी अब खुली है जब तमाशा बन गया
मेरे घर मुझको नही रखे, मुझे जंगल दिये
जिनको मैं देखा नहीं जिनपे ये नज़रें न गई
जिनको अपना मैं न समझा बस वही सम्बल दिये
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