20/07/2016

" देखता हूँ "

देखता हूँ, मनीषियों को "वसुधैव कुटुम्बकम्" का नारा लगाते
खुशी मिलती है,
देखता हूँ उन्हीं आचार्यों को किसी के अवसान पश्चात सभागारों में दुःख व्यक्त करते वक्त विषाद से युक्त चेहरा और आँखों में आँसू ,सुकून मिलता है लगता है कि सम्वेदना अभी है कहीं न कहीं,
विद्वत्गणों का अपनत्व दिखता है, पर देखता हूँ कुछ प्रतिभा सम्पन्न आचार्यों को शोक व्यक्त करते समय भी क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कर अपनी विद्वता  का परिचय देते हुए,
सोंचता हूँ, इनकी भाषा ही ऐसी होगी, पर सुनता हूँ, उन्हें सभागारों के बाहर परस्पर ये कहते कि "कैसे बोला मैं " दुःख होता है,
लगने लगता है ,यह सब मात्र दिखावा है, मिथ्यास्तुति है,
महसूस ही नही होने देते कि यह सब औपचारिक है ।
पर इतना ही नही देखा मैंने ,करुणा के सागर हुए व्यक्ति, दोस्त मित्र
की आँखों से बड़ी - बड़ी बूँदें छलकते हुए भी मैंने देखा है ।।
मैंने देखा है "वसुधैव कुटुम्बकम् "का नारा लगाते हुए भी मैंने देखा है ।।

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