ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के क्लेशों में
मानव देखा जाता है अब रंग, रूपों, और वेशों में
ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के कलेशों में
देखता हूँ मैं जब जिसको सब रहते हैं आवेशों में
ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के कलेशों में
खेतों में है आग लगी जीते हैं कुछ अवशेषों में
ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के कलेशों में
ज्ञान अथाह भले ही हो नौकरी नहीं है रेसों में
ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के कलेशों में
लोग स्वयं का मान बेंच देते हैं रुपयों - पैसों में
ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के कलेशों में
ऐसे ही यह विश्व बँट गया देशों और प्रदेशों में
ज्यादा है कुछ बात नहीं बस तरह - तरह के कलेशों में
यह मेरी पहली कविता है जब मैं रणवीर संस्कृत विद्यालय ( BHU,कमच्छा, वाराणसी ) में बारहवीं का छात्र था।
मैंने इसे " सुशील सुमन सर " की विदाई के उपलक्ष्य में गुरुदक्षिणा के लिए लिखा था, मुझे अवसर भी मिला अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का और मैंने ये कविता सुनाई।
सुशील सुमन सर नें कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कविता बहुत ही अच्छी है पर इसकी दूसरी लाइन का प्रयोग बार - बार हो रहा है इसलिए थोड़ी कमज़ोर हो रही है बाकी कविता में विभिन्न विषय हैं, कविता में बहुत सारा सन्देश है, इन्हीं संदेशों के साथ ही मुझे तुममें बहुत सारी उम्मीदें दिख रही हैं ।
सुशील सुमन सर नें उस दिन बातों को कहने के क्रम में एक बहुत ही ख़ूबसूरत बात बोली थी, जिसका प्रभाव मेरे ऊपर हमेशा रहा है उनके लफ़्ज़ थे कि " विचार किसी के बाप की जागीर नहीं हैं जो कुछ ही लोगों के पास रहें विचार कोई भी दे सकता है और जरूरी नहीं की हमेशा जो बड़ा बोले वही सही हो, छोटे भी सही हो सकते हैं और होते हैं ।"
बड़े दिनों बाद आज ये कविता मुझे मिली मैंने सोचा इससे पहले कि ये कहीं इधर - उधर हो इससे जुड़ी यादें और ये कविता आप सभी के साथ साझा ही कर लेता हूँ।
सुशील सुमन सर को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ और मेरा प्रणाम।
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