22/09/2016

'' कुछ मुक्तक ''

कविता न कहानी न कोई छन्द जानता हूँ ,
न शेर ,शायरी न रहना बन्द जानता हूँ।
रहता हूँ सींचता मैं उनको ही अनवरत ,
बागों के अपने फूल की सुगन्ध जानता हूँ।।

तेरी यादों के समन्दर में जब मैं डूब जाता हूँ ,
तेरे ख्वाबों में खोकर के मैं शायर खूब गाता हूँ।
मगर ऐ दिलनसी !सुन ले जब तू खुद को रुलाती है ,
मैं तेरे पास भी रहके स्वयं ही सूख जाता हूँ।।

तेरी नफरत को हसरत में बदल न दूँ तो तू कहना ,
तेरी उल्फत को चाहत में बदल न दूँ तो तू कहना।
मगर ऐ बेमुरौवत !सुन तू खुद पे कितना काबू पा ,
तुझे मैं अपने चरणों में झुका न दूँ तो तू कहना।।

तुम्हारे दुःख भरे जीवन को खुशियों से सजा दूँगा ,
दिए गर साथ तुम मेरा तुम्हें दुल्हन बना लूँगा।
समर्पण कर दिया जीवन तुम्हारे ही लिए मैंने ,
अगर तुम प्यार से कह दो तो शय्या भी सजा लूँगा।।

जिन्दगी स्वयं से घबराती है ,
जो चाहे वही कराती है।
मुझसे दूर जब वो जाती है ,
छाँह में धूप नजर आती है।।

बिदाई का समय था आँखे भरी हुई थी ,
सामान पैक करने में वो कहीं बिज़ी थी।
कोई चाहने वाला जा कमरे में रो रहा था ,
गाड़ी पे बैठते ही वो भी तो रो पड़ी थी।।

प्रेम ही अब घर है मेरा प्रेम ही अब द्वार है ,
प्रेम गर  मैं न करूँ जीवन को इस धिक्कार है।
प्रेम का भूखा हूँ मैं बस प्रेम को ही जनता हूँ ,
प्रेम के आगे न अपने आपको पहचानता हूँ।।

जी चाहता है कि खुद को सजा दूँ ,
फूलों से तेरे चरण को डुबा दूँ।
सूँघूँ उन्हें और बिछाऊँ मैं ओढूँ ,
माता के चरणों में जीवन लुटा दूँ।।

 

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