जिन्दगानी बीतती है पाप में
बेतहाशा रो रहे हैं आप में
ज्ञान देते ही रहे अध्यात्म का
जीव, ईश्वर, वेद गीता आत्म का
बस पढ़े समझे नहीं संताप में
एक पत्थर को रगड़कर आ गये
खत्म करके,मन्त्र पढ़कर आ गये
खर्च होते जा रहे हैं जाप में
देखना क्या उस गुरु की साधना
हो नहीं जिसको तनिक सम्वेदना
देखना गुरुता किसी माँ - बाप में
आज भूखा हूँ बताया, रो पड़ी
दूर है माँ, दूर उसकी झोपड़ी
जल रहा हूँ मैं अभागा शाप में
भोर से अस्वस्थ हूँ, सरदर्द है
दूर उनका भ्रम हुआ खुदगर्ज है
शर उठाकर जो चढ़ाया चाप में
नीलेन्द्र शुक्ल " नील "