तुम्हारी वाहवाही के लिए लिखता नही हूँ
मैं लिखता हूँ कि मैं ज़िन्दा हूँ ये तुम जान पाओ
हमारे कर्म कुछ ऐसे रहें कि जब भी खोजो
कभी मन्दिर, कभी मस्जिद कभी श्मशान पाओ
जमीं पर अब नही दिखती रज़ामन्दी दिलों में
जमीं से टूटकर तारों! खुला आसमान पाओ
जहाँ पर ज्ञान से, गौरव से, धन से गर्व होता हो
जगह वह छोड़ दो प्यारे कोई इंसान पाओ
जमीं छानो, जहाँ छानो, भरा आकाश तुम छानो
महज़ घर छान लो अपना " अनोखा ज्ञान " पाओ ।
भरो बस प्रेम का रस इस समूचे विश्व में तुम
मिटाओ द्वेष यारों इक नया सम्मान पाओ ।
1 comment:
वाह !!! बहुत खूब .... शानदार रचना
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