Pic Credit - Shiksha Mishra |
सोच ले कुछ धर्म अपना शर्म करते चल
कर्म करते चल मुसाफिर ......
सोच मत फल के लिए
जो फल मिले या न
भज ले ईश्वर को ज़रा
ये कल मिले या न
जो मिले हैं ग्रन्थ उनका मर्म करते चल
कर्म करते चल मुसाफिर ......
दान दे थोड़ा भजन कर
और निजचिन्तन
क्यों बना है ? क्या करेगा ?
इसपे कुछ मन्थन
धर्म से गद्दी तू अपनी गर्म करते चल
कर्म करते चल मुसाफिर ......
छोड़ने में तू सतत प्रेरित
हो राग - द्वेष
और अभिवर्धन करे सम्पन्न
हो यह देश
त्याग दे तू क्रोध खुद को नर्म (नम्र) करते चल
कर्म करते चल मुसाफिर .......
क्या पता ये जिन्दगी
फिर से मिले या न
क्या पता ये कर्मभूमि
फिर मिले या न
दूर कर खुद की कमी कुछ धर्म करते चल
कर्म करते चल मुसाफिर कर्म करते चल -2
सोच ले कुछ धर्म अपना शर्म करते चल
कर्म करते चल मुसाफिर ...... कर्म करते चल ।।
3 comments:
बहुत उत्तम मित्र
Well writ my child.The ultimate truth, eloquent and clear!!
अच्छी कविता है।
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