16/04/2017

न जाने कल कहाँ ये दोस्त तेरी दीक्षा हो


प्रिय बचपन की दोस्त दीक्षा मिश्रा जी को समर्पित ये गज़ल बहुत ही सीधी सरल और उदात्त स्वभाव की हैं   -------

महकती हो सदा फूलों सी वो ऐसी फिज़ा हो
खुले हों जुल्फ लहराती हुई कोई निशाँ हो ,
चमकती,चमचमाती धूप हो जैसे शरद की
सुनहरी शान्त सी कोमल हमारी दीक्षा हो ।।

नही चन्दा ,नही सूरज ,नही गुलनार माँगू
सदा खुशियों भरी, पावन पवन वो,दीक्षा हो ।।

अधूरी एक भी किरणें नही टकराएँ उससे,
कि छनकर जाएँ जिसपे रोशनी वो दीक्षा हो ।।

सभी हों राह ऐसी आज जिसपे पैर तेरा
पड़ें ,बिछ जाएँ सारे फूल जिसपे दीक्षा हो ।।

मिटें नापाक वो सारी सभी की भावनाएँ
कि जिसकी सोंच पे बैठी हुई ये दीक्षा हो ।।

बड़ी हसरत,बड़ी चाहत,बड़ा महफूज़ हूँ मैं
जिसे महफूज़ तुम रखना हमारी दीक्षा हो ।।

बहुत शीतल हिलोरें मारती हैं भावनाएँ
कि हो गरमी में जो बदरी सदृश वो,दीक्षा हो ।।

चलो अब नील तुम भी साथ चल लो ,
न जाने कल कहाँ ये दोस्त तेरी दीक्षा हो ।।

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