25/09/2016

'' आप और हम ''

मैं मन्दिर आता हूँ सिर्फ़ आपको देखने ,
झलक पाने ,हाँ झलक पाने ,
ताकि मैं सुकून से रह सकूँ।
अपनी ज़िन्दगी को खुशियों से सजा सकूं ,
अपनी इच्छाओं ,मनोकामनाओं ,अभिलाषाओं को
सुन्दरतम ढंग से आयामित कर सकूँ ,अपरिमित कर सकूँ ,
अजेय कर सकूँ ,
कि शुरू हो सके इस जीवन का सबसे अहम और महत्वपूर्ण पहलू ,
शुरू हो सके जीवन में वसंत का आना और
शरद का छाना ,
हों दोनों पूर्ण चाँद पे ,चाँद की शीतलता
महसूस करते हुए ,
तुम  मुझसे कहती हो कि कुछ कहो न
(और मैं कहता हूँ )
कि मैं तुमसे क्या कहूँ
कि मैं तुम्हें कितना चाहता, प्रेम करता हूँ
मैं जहाँ भी जाऊं ,जो भी सोचूं ,कुछ भी करूँ
रोऊँ ,हसूँ ,गाऊँ ,गुनगुनाऊँ या
अपनी रचना ,कविता ,कहानी में पिरोऊँ ,
मेरी रचना में ,मेरी दुनिया में, लफ्जों में,
शब्दों में ,अर्थों में और यथार्थों में बसी हैं तुम्हारी यादें
और तुम।
इसीलिए ,
और इसीलिए  सजाता रहता हूँ अपने ही
यादों ,ख्वाबों और ख़यालों के उन गुलदस्तों को ,
जिनमें परिवेष्टित ,आच्छादित सुगन्धित हैं
आपकी महक ,
                       '' आप और हम '' 

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